मनोरंजक कथाएँ >> राजा का न्याय राजा का न्यायरबीन्द्रनाथ टैगोर
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रवीन्द्र साहित्य की बालसाहित्य पेशकश राजा का न्याय.....
Raja Ka Nyaya -A Hindi Book by Ravindranath Thakur
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
राजा का न्याय
काशी की महारानी करुणादेवी अपनी सहेलियों और दासियों के साथ स्नान करने के लिए निकली हैं। नदी का साफ पानी बह रहा है। सर्दियों का महीना है। ठंडी-ठंडी हवा चल रही है। शहर से दूर, नदी के घाट पर आज एक भी आदमी दिखायी नहीं पड़ रहा है। पास ही गरीबों की घास-फूंस की झोपड़ियां हैं। राजा की आज्ञा है—महारानी स्नान करने पधार रही हैं,., इसलिए सभी झोपड़ी-वासी झोपड़ियाँ खाली करके कहीं चले जायें, तो महारानी स्नान करके आ जायें, तो लौट आयें। इसीलिए झोपड़ियां सुनसान पड़ी हैं।
ठंडी हवा के झोंकों ने नदी के जल में हिलोरें उठा दी। हैं। उगते सूरज की किरणें पानी की सतह पर झिलमिल-झिलमिल कर रही हैं। पक्षी कलरव कर रहे हैं।
रानी जी सखी-सहेलियों के संग खिलखिलाती हुई स्नान कर रही हैं। सहेलियां हास-परिहास कर रही हैं। वातावरण हंसी से भर उठा है पानी पर हाथों की छपछप से एक संगीत निकल रहा है।
स्नान करके महारानी नदी के किनारे पर आयीं। चिल्लाकर बोलीं—सखियों। आग कौन जलायेगी ? सर्दी के मारे मैं तो मरी जा रही हूं।’’
सौ-सौ सखियाँ दौड़ निकलीं और पेड़ों की टहनियां खींच-खींचकर लाने लगीं। परन्तु इन कोमल हाथों में एक भी शाखा तोड़ लाने की शक्ति कहां थी ! रानी ने फिर चिल्ला कर कहा, ‘‘अरी सहेलियों, देखो, वे सामने घास की झोपड़ियाँ खड़ी हैं। इन्हीं में से एक को दियासलाई लगा दो। इसकी गर्मा से सेंक लूंगी।
मालती नामक दासी-करुण-भाव से कहने लगी, ‘‘रानी जी ऐसा मजाक भी कहीं हो सकता है ? इन झोपड़ियों में साधु-संन्यासी रहते होंगे, गरीब परदेसी रहते होंगे। क्या उन बेचारों के नन्हें घरों को भी आप जला देना चाहती हैं ?’’
ठंडी हवा के झोंकों ने नदी के जल में हिलोरें उठा दी। हैं। उगते सूरज की किरणें पानी की सतह पर झिलमिल-झिलमिल कर रही हैं। पक्षी कलरव कर रहे हैं।
रानी जी सखी-सहेलियों के संग खिलखिलाती हुई स्नान कर रही हैं। सहेलियां हास-परिहास कर रही हैं। वातावरण हंसी से भर उठा है पानी पर हाथों की छपछप से एक संगीत निकल रहा है।
स्नान करके महारानी नदी के किनारे पर आयीं। चिल्लाकर बोलीं—सखियों। आग कौन जलायेगी ? सर्दी के मारे मैं तो मरी जा रही हूं।’’
सौ-सौ सखियाँ दौड़ निकलीं और पेड़ों की टहनियां खींच-खींचकर लाने लगीं। परन्तु इन कोमल हाथों में एक भी शाखा तोड़ लाने की शक्ति कहां थी ! रानी ने फिर चिल्ला कर कहा, ‘‘अरी सहेलियों, देखो, वे सामने घास की झोपड़ियाँ खड़ी हैं। इन्हीं में से एक को दियासलाई लगा दो। इसकी गर्मा से सेंक लूंगी।
मालती नामक दासी-करुण-भाव से कहने लगी, ‘‘रानी जी ऐसा मजाक भी कहीं हो सकता है ? इन झोपड़ियों में साधु-संन्यासी रहते होंगे, गरीब परदेसी रहते होंगे। क्या उन बेचारों के नन्हें घरों को भी आप जला देना चाहती हैं ?’’
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